Tuesday, September 23, 2014

अधूरी कविता

य हवायें तो मेरी अपनी थी
यह दीवारें तो मेरे हर सुख दुःख की सांझी थी
 इस आँगन में  मेरे नए सपनों ने अंगड़ाई ली थी
कभी यहाँ नए युग की शुरुआत हुई थी |

कई बरसों की गवाह है यह हवाएं
खट्टे मीठे पल संजोय हैं यह हवाएं
कभी बसंत तो कभी पतझड़
सर्द  गर्म आहों की गवाह यह हवाएं |


झरोखों से झांकती रौशनी
दरो दीवार सब अपने तो थे
अब क्यूँ इनमें दरारें आ रही हैं
क्या संभल नहीं पाई |

यह जर्जर  होती इमारत मेरी ही तो थी
यहाँ की धूल भी तो मेरी अपनी थी
यह मकड़ों ने कब जालों से ढांप ली
कहाँ खो गई वो चमक ...............|

सब अपने ही तो थे यहाँ
अपना एक छोटा सा संसार बनाया था
मैंने भी चिरैया सा एक घोंसला
कब  पंखेरू उड़ गए जो मेरे अपने थे





4 comments:

  1. सब अपने ही तो थे यहाँ
    अपना एक छोटा सा संसार बनाया था
    मैंने भी चिरैया सा एक घोंसला
    कब पंखेरू उड़ गए जो मेरे अपने थे......bahut marmik

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  2. आभार उपासना सखी

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  3. अनुपम प्रस्तुति....आपको और समस्त ब्लॉगर मित्रों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं...
    नयी पोस्ट@बड़ी मुश्किल है बोलो क्या बताएं

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    1. शुक्रिया चतुर्वेदी जी

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