Sunday, September 7, 2014

उफ़ान

नदी अपने पूरे उफान पे है
चारों ओर हाहाकार मची है
तबाही ही तबाही हर ओर
जलथल हुई धरा


नदी में उफान  क्यों
यह शांत कलकल
आज उफान क्यूँ
ज्यूँ हर बाधा तोड़
सब बहा ले जाना हो


यह तो सोचा होता
कितना बाँधा है किनारों को
सब इसमें  डाल दिया
जो जिसे मिला

इसके सहने की भी सीमा है
यह किसने सोचा
इसकी भी अपनी गति है
किसने समझा

इसके किनारों  को कितना बांधते
कितना सहा इसने
किसी ने नहीं सोचा
कितना खुद में समाये रही
कौन जाने

कुछ दिन के उफान  के बाद
 फिर उसी रस्ते चल देगी 
इसके किनारों पे दुनिया बसी रहे
यह वसुंधरा हरी रहे

सब भूल इन अपनों के लिए
फिर सब अपने अंदर
दफना  फिर शांत होगी
उसी पथ पे कलकल

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